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पर्यावरण संकट की गंभीरता का एहसास करते हुए सभी बुद्धिजीवियों, सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरणविदों को एक मंच पर आकर, धरती माता के अस्तित्व को बचाने के संघर्ष में जुट जाना है।

Sunday 26 July 2020

वैश्विक पारिस्थितिकी और सार्वजनिक हित


जोन बेलामी फोस्टर
अनुवाद-– दिगम्बर
बीसवीं सदी के दौरान मानव जनसंख्या में तीन गुनें की वृध्दी हुई है और दुनिया का सकल घरेलू उत्पाद बीस गुनें बढ़ा। ऐसे विस्तार ने इस ग्रह की पारिस्थितिकी पर लगातार दबाव बढ़ाया। हर जगह जब हम वायुमंडल, समुद्र, जलाशय, जंगल, मिट्टी को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि पारिस्थितिकी मे बहुत तेजी से गिरावट हो रही है।1
वैश्विक पारिस्थितिक संकट की जुझारू सच्चाई का सामना होने पर कई लोग यह आह्वान् कर रहे हैं कि ऐसी नैतिक क्रान्ति हो जो हमारी संस्कृति के भीतर पारिस्थितिक मूल्यों को समाहित करे। पारिस्थितिकी की नैतिकता की यह माँग, मेरे ख्याल से हरित चिन्तन का सार है। इस तरह के नैतिक रूपान्तरण की परिकल्पना को अल़्डो नियोपोल्ड के भूमि आचार मे गहराई से समझया गया है, जिसमें कहा गया है हम जमीन के साथ दुराचार करते हैं क्योंकि हम मानते हैं कि यह एक माल है जो हमारी सम्पत्ति है। जब हम जमीन को उस समुदाय के रूप में देखना शुरू करते हैं, जिसके हम अंग हैं तो हम प्यार और आदर से उसका उसका उपयोग करना शुरू करते हैं। फिर भी पारिस्थितिक नैतिकता की अधिकांश अपीलों के पीछे यह अनुमान काम करता है कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहाँ व्यक्ति की नैतिकता ही समाज की नैतिकता की कुंजी है। अगर एक व्यक्ति के रूप में लोग सिर्फ प्रकृति के प्रति अपने रुख में बदलाव लायें तथा फैलाव, उपयोग और आचार संहिता में सुधार कर लें, तो सब कुछ सही हो जाएगा।2
नैतिक रूपान्तरण के ऐसे आह्वानों में जिस बात की आम तौर पर अनदेखी की जाती है वह हमारे समाज का केन्द्रीय संस्थागत तथ्य है- जिसे वैश्विक उत्पादन का ट्रेडमिल कहा जा सकता है। इस ट्रेडमिल के तर्क को छ: अवयवों में विश्लेशित किया जा सकता है। पहला, यह वैश्विक व्यवस्था के अन्दर् निर्मित हुआ है और अपना जो केन्द्रीय तर्क निर्मित करता है, वह है, समाजिक पिरामिड के शीर्ष पर आबादी के एक अपेक्षतया छोटे से हिस्से द्वारा सम्पत्ति का बढ़ता संचय। दूसरा, कामगारों का स्वरोजगार से मजदूरी पर की ओर दीर्घकालिक गमन जो उत्पादन के लगातार विस्तार के लिये फौज का काम करते हैं। तीसरा, पूंजीपतियों के बीच प्रतियोगी संघर्ष, विलुप्त हो जाने के क्लेश के कारण अपने संचित धन को ऐसी नयी, क्रान्तिकारी तकनोलोजी में लगाना जरूरी हो जाता है जो उत्पादन के विस्तार में सहायक होता है। चौथा, जरूरतें इस तरह से गढ़ी जाती हैं कि ज्यादा से ज्यादा पाने की भूख कभी शान्त नहीं होती है। पांचवा, सरकार दिनोंदिन राष्ट्रीय आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिये जिम्मेदार होती जाती है जबकि अपने नागरिकों के कम से कम एक हिस्से के लिए कुछ हद तक समाजिक सुरक्षा सुनिश्चत करती है। छठा, संचार और शिक्षा के प्रभावी साधन ट्रेडमिल के पुर्जे होते हैं, जो इसकी प्राथमिकताओं और मूल्यों को प्रभावी बनाने के काम आते हैं।3
इस व्यवस्था का निर्णायक लक्षण यह है कि यह एक तरह का गोल-गोल चक्कर खाता एक विराट पिंजरा है। हर कोई या लगभग सभी इस ट्रेडमिल का पुर्जा है और उससे बाहर निकलने में असमर्थ या अनिच्छुक है। निवेशक और प्रबन्धक सम्पत्ति संचित करने की आवश्यकता से प्रेरित होते हैं और उसे विश्वस्तरीय प्रतियोगिता की हालत में अपने कारोबार का विस्तार करना होता है। बड़ी आबादी के लिए ट्रेडमिल की वचनबध्दता काफी सीमित और अप्रत्यक्ष होती है- उन्हें केवल् जीने भर की मजदूरी पर नौकरी पाना होता है। लेकिन इन परीस्थितियों में उस नौकरी को बचाये रखना, एक निश्चित जीवन स्तर को बचाये रखने के लिए अनिवार्य होता है, थ्रू द लुकिंग ग्लास की रेड क्वीन की तरह, जिसे एक ही जगह पर बने रहने के लिए तेज से तेज दौड़ना पड़ता है।4
ऐसे वातावरण में, जैसा कि उन्नीसवीं सदी के जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने एक बार कहा था- एक आदमी जैसा चाहे जी सकता है। लेकिन वह जो चाहता है वह नहीं चाह सकता। हमारी चाहतें उस समाज के द्वारा अनुकूलित होती हैं जिसमें हम रहते हैं। इस तरह से अगर देखा जाये तो व्यक्ति अपनी खुद की आन्तरिक इच्छाओ के अनुरूप कार्र्वाई नहीं करता है, बल्कि उत्पादन का ट्रेडमिल उसे चलाता है जिस पर हम सब लोग स्थापित हैं और जो पर्यावरण का मुख्य दुश्मन बन गया है।
जाहिर है कि यह ट्रे़डमिल उस दिशा में बढ़ती है जो इस ग्रह के बुनियादी पारिस्थितिक चक्र से बेमेल है। अगर औद्योगिक उत्पादन में लगातार तीन प्रतिशत औसत सालाना विकास दर हो, जितना 1970 से 1990 तक हासिल हुआ, तो इसका मतलब यह है कि विश्व के उद्योग का आकार हर पच्चीस साल में दो गुना हो जायेगा और सदी में सोलह गुना के लगभग बढ़ेगा, तीन सदी में 4000 गुना बढ़ेगा इत्यादि। यही नहीं, वर्तमान उत्पादन ट्रेडमिल का रूझान कच्चे माल और उर्जा की लागत में विस्तार करने की ओर है, क्योंकि लागत जितनी बढ़ेगी, उतना ही तैयार माल को ग्राहक तक पहुँचाने के जरिये मुनाफा होगा। मुनाफा पैदा करने के दौरान ट्रेडमिल बहुत ज्यादा उर्जा केन्द्रित, पूंजीकेन्द्रित तकनोलोजी पर भरोसा करती है, जो इसे श्रम लागत पर पैसा बचाने में सहायक् होती है। फिर भी कच्चे माल की लागत बधाने और श्रम की जगह उर्जा और मशीन का इस्तेमाल करने का मतलब है उच्च स्तर के उर्जा स्त्रोतों औऱ प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करना और भारी मात्रा में वातावरण में कचरा उड़ेलना। इसलिए सम्पूर्ण विनाश का सामना किये बिना इस व्यवस्था के अन्तर्गत औद्योगिक उत्पादन को अब और दुगना-तिगुना करके इस दुनिया को टिकाये रखना असम्भव होगा। वस्तुत: हम कुछ महत्वपूर्ण पारिस्थितिक सीमाओं को पहले ही बहुत तेजी से लांघ चुके हैं।5
हालात और बदतर हो गये जब हाल के दशकों में पर्यावरण के घोर अपमान से सूक्ष्म विषैलेपन की और रूझान बढ़़ा। जब सिन्थेटिक माल (जैसे प्लास्टिक) ने प्राकृतिक वस्तुओं (जैसे- लकड़ी, ऊन) की जगह लेना शुरू किया, तब उन्नीसवीं सदी के औद्योगिकरण से सम्बन्धित् तमाम प्रदूषकों की जगह कहीं ज्यादा खतरनाक प्रदूषकों का इस्तेमाल होने लगा, जैसेकि क्लोरीन से सम्बन्धित (ऑर्गेनोक्लोरीन) उत्पादन के परिणाम स्वरूप पैदा होने वाले प्रदूषक - डीडीटी का स्त्रोत, डायोक्सीन, एजेन्ट औरेन्ज, पीसीबी और सीएफसी इत्यादी। किसी निश्चित उत्पादन के स्तर से सम्बन्धित विषैलेपन का अंश, पिछली आधी सदी के दौरान बहुत ही ज्यादा तेजी से बढ़ा है।6
तब ऐसा लगता है कि एक पर्यावरण परिप्रेक्ष्य से देखे तो हमारे पास उत्पादन के ट्रेडमिल का प्रतिरोध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। ऐसे प्रतिरोध का एक दूरगामी नैतिक क्रान्ति का रूप ग्रहण करना जरूरी है। ऐसे नैतिक रूपान्तरण को संचालित करने के लिए, हालाँकि यह जरूरी है कि हम उस चीज से टकरायें जिसे महान अमरीकी समाजशास्त्री सी राइट मिल्स ने उच्चतर अनैतिकता कहा है। मिल्स की निगाह में उच्चतर अनैतिकता एक ढ़ांचागत अनैतिकता थी, जिसका निर्माण हमारे समाज में सत्ता की संस्था के भीतर हुआ था - खासकर उत्पादन की ट्रेडमिल के भीतर। उन्होंने लिखा है कि अमरीका जैसी पूरी तरह व्यापार से गुंथी हुई सभ्यता में पैसा ही सफलता का एक सुस्पष्ट निशान हो जाता है... सार्वभौमिक अमरीकी मूल्य। ऐसा समाज जो कॉर्पोरेट धनवानों द्वारा राजनीतिक सत्ता के कुलीनों के समर्थन से शासित हो, वह संगठित गैरजिम्मेदारी का समाज है, जहाँ सफलता से नैतिक मूल्यों का और सत्ता से ज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं। सार्वजनिक संचार माध्यम, एक लोकतन्त्र की मजबूती के लिए विचारों के आदान-प्रदान का जरूरी आधार निर्मित करने के बजाय, आम तौर पर मालों के प्रचार के आश्चर्यजनक पैमानों के सुपुर्द कर दिया है...जो दिल और दिमाग की जगह पेट और जननांग को सम्बोधित होते है। इन सबका आम जनता पर कितना भ्रष्टकारी प्रभाव होता है, यह नैतिक आवेश की क्षमती की क्षती, मानवद्वेष में वृध्दि, राजनीतिक भागिदारी में गिरावट और एक निष्क्रिय हानिलाभ केन्द्रित अस्तित्व के उभार के रूप में दिखाई देता है। संक्षेप में, उच्चतर अनैतिकता, एक अर्थपूर्ण अनैतिकता और राजनीतिक समुदाय के खात्में की ओर संकेत करता है।7
इस सर्वोच्च अनैतिकता की अभिव्यक्ति- जिसमें पैसे का सभी लिहाज से अलग-थलग हो जाना, सर्वोच्च यथार्थ बन गया है- हमारे चारों ओर दिखाई देती है। अकेले 1992 में ही अमरीकी पूंजीपतियों ने लोगों को इस बात पर सहमत करने के लिए कि वे ज्यादा से ज्यादा माल का उपभोग करें, 1000 अरब डॉलर मार्केटिंग पर खर्च किया जिसने सार्वजनिक और निजी, हर तरह की शिक्षा पर खर्च किये गये 600 लाख डॉलर को पीछे छोड़ दिया। ऐसी परीस्थिती में हम उम्मीद कर सकते हैं कि लोग बेचने लायक उपभोक्ता माल के बारे में जानकारियों से अपने दिमाग को भरकर बड़े होंगे, जबकि उनका दिमाग मानव इतिहास, नैतिकता, संस्क्रिति, विज्ञान और पर्यावरण के बारे में जानने से खाली होगा। जो चीज ऐसे समाज में सबसे ज्यादा मूल्यवान है वह है - नये-नये फैशन, बेहद मंहगे कपड़े, बेहतरीन कार। इसलिए इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि 1980 के दशक के उत्तरार्ध में किये गये एक सर्वे में जब किशोरियों से पूछा गया कि उनके फुर्सत के समय में की जानेवाली पसन्दीदा गतिविधी क्या है तो 93 प्रतिशत से ज्यादा ने जवाब में खरीदारी करना बताया। ज्यादा समय नहीं हुआ जब फॉरचुन पत्रिका ने विसा बैंक कार्ड संचालक डी हॉक को उध्द्रत किया, जिसमें उनका कहना था ऐसा नहीं है कि लोग पैसे को महत्व देते हैं, बल्कि यह कि वे हर चीज को इतना कम महत्व देते हैं- यह नहीं कि वे ज्यादा लालची हैं बल्कि उनके पास कोई और मूल्य नहीं जिससे वे अपने लालच को रोक सकें। जर्मन पर्यावरणविद ने बताया किहमारा समाजिक जीवन इस तरह से संगठित है,
कि यहाँ तक कि जो लोग हाथ से काम करते हैं, वे भी धरती के दक्षिणी अर्धांश पर झोपड़पट्टियों     में रहने वाले लोगों के एक वक्त के खाने या वहाँ के किसानों के लिए पानी की जरूरत या यहाँ तक कि अपनी खुद की चेतना, अपने खुद के आत्म बोध का विस्तार करने की चिन्ता से भी कहीं ज्यादा एक   बेहतरीन कार में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं।
हमारे समाज में कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग पर राय जाहिर करते हुए राचेल कार्सन ने लिखा कि यह उद्योग के वर्चस्व वाले एक युग का घोतक है, जिसमें दूसरों को चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े, फिर भी पैसा बनाने के अधिकार को शायद ही चुनौती दी जाती हो।8
हम जिस समाज में रहते हैं उसके स्वभाव को देखते हुए, किसी को भी पर्यावरण समस्याओं के समाधान के बारे में चौकन्ना रहना चाहिए, जिसमें व्यक्ति की भूमिका पर बहुत ज्यादा जोर दिया जाता हो या उत्पादन की ट्रेडमिल और उसके द्वारा पैदा की जाने वाली उच्चतर नैतिकता पर कम ही जोर दिया जाता हो। निश्चय ही व्यक्ति के लिए यह जरूरी है कि वह अपने जीवन को इस तरह संगठित करने के लिए संघर्ष करे, ताकि वे उपभोग के मामले में ज्यादा सरल और पारिस्थितिक तौर-तरीके से जीयें। लेकिन केवल इसी बात पर बहुत ज्यादा जोर देना, व्यक्ति पर बहुत ज्यादा बोझ डालना, जबकि संस्थगत तथ्यों को नजरन्दाज करना है। उध्दाहरण के लिए वर्ल्डवाच इन्टीट्यूट के अलान डुर्निंग तर्क देते हैं कि
हम उपभोक्ताओं के ऊपर अपने उपभोग पर नैतिक नियन्त्रण लगाने की जिम्मेदारी है, क्योंकि यह भावी पीढ़ी के लिए सम्भावनाओ को जोखिम में डालता है। यदि हम उपभोग की सीढ़ी से कुछ पायदान नीचे नहीं उतरते, तो हमारी भावी संतति को हमारी विफलताओं के चलते उत्तराधिकार में एक कंगाल ग्रहआवास मिलेगा।
  यह सरल सामान्य लग सकता है, लेकिन यह अमरीका जैसे उच्चतर अनैतिकता वाले समाज को नजरन्दाज करता है जिसमें प्रभावी संस्थाएं जनता को महज उपभोक्ता मानती हैं आधुनिक मार्केटिंग की तमाम तकनीकों द्वारा निशाना बनाया जा सकता है। अमरीका में औसत वयस्क एक साल में 21000 टीवी विज्ञापन देखता है, जिनमें से 75 प्रतिशत का 100 बड़े कॉर्पोरेशन करते हैं। यह इस तथ्य को भी नजरन्दाज करता है कि उत्पादन का ट्रेडमिल उपभोग पर नहीं, बल्कि उत्पादन पर आधारित है। इस व्यवस्था के सन्दर्भ में इसलिए यह सोचना बचकानापन है कि महज उपभोक्तओं को उपभोग से विमुख करके और अपने लाभ को बचाकर उसे निवेश करके ही इस समस्या को हल किया जा सकता है। निवेश करने का मतलब है उत्पादन क्षमता के स्तर का विस्तार, ट्रेडमिल के आकार को बढ़ाना।9
ज्यादा बड़ा सवाल उन लोगों कि अन्तर्निहित धारणा है जो न केवल आम तौर पर व्यक्तियों से और समाजिक पिरामिड के शीर्ष पर खड़े व्यक्तियों से और निगमों से अपील करके पर्यावरण के पतन को रोकना चाहते हैं। इसीतरह पॉल हॉकेन ने अपनी बहुप्रचलित पुस्तक द इकोलोजी ऑफ कॉमर्स में पूजींपतियों और निगमों के लिए एक नयी पर्यावरण नैतिकता का निर्माण किया है। पारिस्थितिक परिवर्तन के लिए एक महत्वकांक्षी कार्यक्रम की वकालत करने के बाद, हॉकेन कहते हैं, लिखित, अनुशंसित् या प्रस्तावित कोई भी बात सम्भव नहीं जब तक हम जिस दुनिया में रहते हैं, पूंजीपती उसे गले लगाने और राह दिखाने का काम नहीं करते। हॉकेन के अनुसार, व्यापार का अन्तिम उद्देश्य केवल पैसा कमाना नहीं, और न ही होना चाहिए, न ही यह सिर्फ सामान बनाने और बेचने वाली व्यवस्था है। व्यापार का उद्देश्य सेवा, एक रचनात्मक खोज और नैतिक दर्शन के जरिये मानवजाति की आम खुशहाली को बढ़ाना है।
इस तरह वे आगे चलकर बताते हैं;
अगर डू पोण्ट, मोनसेन्टो और डाउ यह विश्वास करते हैं कि वे सिन्थेटिक रसायन के उत्पादन के                  कारोबार में हैं और इस विश्वास को बदल नहीं सकते तो वे और हम परेशानी में हैं। अगर वे विश्वास            करते हैं कि वे लोग की सेवा के लिए, समस्या समस्या को हल करने में सहायता के लिए, प्रकृति से          सीखकर अपने इर्दगिर्द के लोगों की जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए मजदूरों की प्रतिभा उपयोग          करते हैं और उन्हें काम में लगाते हैं, तो यह हमें जीवन देता है ऐसा अवसर हमें है।10   

यहाँ मुख्य सन्देश यही है कि पूंजीपतियों को केवल अपने आचार-व्यवहार का नैतिक आधार बदलना है और पर्यावरण की सारी गड़बड़ियाँ सही हो जायेंगी। ऐसे दृष्टिकोण उस विस्तार को कम करके आँकते हैं कि किस हद तक उत्पादन के ट्रेडमिल और उच्चतर नैतिकता को हमारे समाज में निर्मित किया गया है। विडम्बना तो यह है कि हॉकेन के तर्क व्यक्तिगत रूप से निगमों के मैनेजर पर बहुत ज्यादा जिम्मेदारी और दोष मंढ़ते हैं। जबकि वे इस व्यवस्था के पहिये के सिर्फ एक दाँता हैं। जैसा कि महान भाषाशास्त्री और मीडिया समीक्षक नोमचोम्स्की ने व्याख्यायित किया है-
       बोर्ड का चेयरमैंन आपसे हमेशा यही कहेगा कि वह हर जाग्रत घंटा मेहनत करते हुए बिताता है, ताकि              लोगों को सस्ते से सस्ते दाम पर बढ़िया से बढ़िया सामान हासिल हो और वे यथासम्भव बेहतर                       दशाओं में काम करें। लेकिन यह एक स्थापित तथ्य है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता बोर्ड का               चेयरमैंन कौन है, कि वह मुनाफा बढ़ाने और बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए जोरदार कोशिश                  करता है और अगर उसने ऐसा नहीं किया तो वह बोर्ड का चेयरमैंन नहीं रह पायेगा। वह जो बात          करता है उसके भ्रम का शिकार हो जाये तो उसे बाहर कर दिया जायेगा।11
इस समाज के किसी भी क्षेत्र में सफल होने का मतलब है कि उस व्यक्ति ने उच्चतर अनैतिकता से जुड़े तमाम मूल्यों को पूरी तरह आत्मसात किया है। अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गालब्रेथ ने बताया है कि सामाजिक सोपानक्रम के शीर्ष पर एक संतुष्टी संस्कृति है - जो लग मौजूदा व्यवस्था से सबसे ज्यादा लाभ हासिल करते हैं उनमें बदलाव की इच्छा नहीं के बराबर होती है।12
इसलिये उत्पादन के ट्रेडमिल का प्रतिरोध समाज के निचले समुदायों और सामाजिक आन्दोलनों के जरिये ही होगा, व्यक्तियों से नहीं। जर्मन ग्रीन पार्टी की नेता पेट्रा केली के शब्दों में, यह तभी होगा जब पारिस्थितिक चिन्ताएँ आर्थिक मुद्दों- धनवानों द्वारा गरीबों के शोषण से जुड़ी हो। आज के हर पर्यावरण सम्बन्धी संघर्ष के पीछे वैश्विक ट्रेडमिल के विस्तार के खिलाफ संघर्ष हैं - भूमिहीन मजदूरों और ग्रामीणों का विनाश करने पर बाध्य किया जाता है, या बड़े निगमों का मामला अपने मुनाफे को बढ़ाना चाहते हैं लेकिन प्राकृतिक या समाजिक तबाही की कोई चिन्ता नहीं करते जो अपने पीछे छोड़ जाते हैं। पारिस्थितिक विकास संभव है, लेकिन तभी जब ट्रेडमिल से जुड़े आर्थिक और पारिस्थतिक अन्याय को समाप्त किया जाये। अर्थव्यवस्था के बारे में पारिस्थितिक पहुँच जीनेभर के लिए पर्याप्त होना है, न कि ज्यादा से ज्यादा हसिल होना। उसकी पहली प्राथमिकता जनता होना जरूरी है, खासकर गरीब जनता, उत्पादन और यहाँ तक कि पर्यावरण भी नहीं, बल्कि उसे बुनियादी जरूरतों और दीर्घकालिक सुरक्षा पर जोर देना जरूरी है। यही वह सार्वजनिक नैतिकता है, जिसके दम पर हमें ट्रेडमिल की उच्चतर नैतिकता का मुकाबला करना जरूरी है। सबसे बढ़कर, हमें पुराने सच को स्वीकारना होगा, जिसे बहुत पहले पूंजीवाद के रूमानी और समाजवादी आलोचकों ने समझा था कि उत्पादन बढ़ाने से गरीबी खत्म नहीं होती।13
वास्तव में वैश्विक ट्रेडमिल को इस तरह गढ़ा गया है कि दुनिया के गरीब देश अक्सर धनी देशों का वित्तपोषण करके उनकी मदद करते हैं। 1982 से 1990 की अवधि में तीसरी दुनिया के देश विकासशील देशों को दुर्लभ मुद्रा के शुध्द निर्यातक थे, औसतन 30 लाख डॉलर प्रतिवर्ष। इसी अवधि में तीसरी दुनिया के कर्जदारों ने धनी देशों में स्थित अपने कर्जदाताओं को हर महीने 12.5 अरब डॉलर सिर्फ भुग्तान के रूप में अदा किया। यह तीसरी दुनिया के सभी देशों द्वारा हर महीने स्वास्थ्य और शिक्षा पर किये जाने वाले कुल खर्च के बराबर है। वैश्विक असमानता की यही व्यवस्था अतिजनसंख्या (क्योंकि गरीबी जनसंख्या को बढ़ावा देती है) और तीसरी दुनिया के उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों की तबाही से जुड़े एक तरह के हिंसक विकास को बल प्रदान करती हैं।14
आप लोगों में से जिनका झुकाव व्यवहारवाद की ओर हो, उनको हमारी बातें बहुत ज्यादा वैश्विक और बहुत ज्यादा अमूर्त लग सकती हैं। हालाँकि जो जरूरी मुद्दा मैं आप तक पहुँचाना चाहता हूँ वह यह धारणा है कि भले ही हम सब ट्रेडमिल पर हैं, हम सभी एक ही तरीके से और एक ही स्तर की वचनबध्दता के साथ इससे नहीं जुड़े हैं। मैंनें उत्तरपूर्व में प्राचीन वन संघर्ष के बारे में अपने शोध में पाया और दूसरे लोगों ने भी दूसरी परीस्थितीयों में वही चीज खोज निकाली कि साधारण मजदूरों में मजबूत पर्यावरण मूल्य होते हैं, यहाँ तक कि उनमें भी जो पर्यावरण आन्दोलन के विरोधियों के साथ खड़े हैं। सारतः वे अपनी जिन्दगी और जीविका के लिए बिलकुल बुनियादी स्तर पर लड़ रहे हैं।15
हमें पर्यावरण को संरक्षित करने की प्रक्रिया में जनता को पहले रखने का रास्ता खोजना होगा। इस ट्रेडमिल में जिन लोगों का अपना आर्थिक हित दांव पर नहीं लगा है, पर्यावरण विनाश में उनकी ओर से आर्थिक हिस्सेदारी घटाने के कई तरीके हैं। लेकिन इसका मतलब है पर्यावरण विनाश के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक असमानता के मुद्दों को भी गम्भीरता से लेना। जिसे आजकल पर्यावरण सम्बंधी न्याय (पर्यावरण की चिन्ता और सामाजिक न्याय को एक साथ मिलाना) कहते हैं, उसके साथ अपने आप को जोड़कर ही पर्यावरण आन्दोलन उन वर्गों के व्यक्तियों से अलग - थलग पड़ने को टाल सकता है जो सामाजिक जमीन पर ट्रेडमिल का सबसे ज्यादा प्रतिरोध करते हैं। विकल्प है एक ऐसे पर्यावरण आन्दोलन को आगे बढ़ाना जो उन लोगों को अलग - थलग करने में सफल हो और दूर रहो का समर्थक बनते हों और फिर भी उत्पादन के व्यापक ट्रेडमिल से मिलीभगत करते हों। यह स्वीकार कर ही कि पर्यावरण के दुश्मन लोग (व्यक्ति के रूप में और कुल मिला कर) नहीं, बल्कि एतिहासिक रूप से विशिष्ट सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था है जिसमें हम रहते हैं, मेरे विचार से हम पृथ्वी को बचाने वाली एक सच्ची नैतिक क्रान्ति के लिए पर्याप्त साझा जमीन हासिल कर सकते हैं।

टिप्पणियाँ 
1)   एन्थनी बी बोल्बार्स्ट, इनवार्मेन्ट इन पेरिल् में जेम्स गुस्ताव स्पेथ, कैन दी वर्ल्ड बी सेव्ड, (वाशिंगटन, स्थित सोनियन इन्स्टीट्यूट प्रेस, 1991)
2)   लिपोपोल्ड, द सेण्ड काउन्टी अलमैनक (न्यूयॉर्क, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस-1949) पृष्ठ-8।
3)   उत्पादन के ट्रेडमिल की अवधारणा अलान श्नैबर्ग की द एन्वायरमेन्ट फ्रॉम सरप्लस टू स्कारसिटी (न्यूयॉर्क, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस-1980) पृष्ठ 205 - 50 तथा श्नैबर्ग और केनेल अनाल गौल्ड, एन्वायरमेन्ट एण्ड सोसायटी, न्यूयॉर्क, सेन्ट मार्टिन्स प्रेस-1949) पृष्ठ-8 से ली गयी है। श्नैबर्ग के शुरूआती लेखन में ट्रेडमिल उसी तरह एकाधिकारी पूंजीवाद के ऐतिहासिक संदर्भ में अवस्थित है, पौल बारन और पौल स्वीजी की पुस्तक मोनोपोली केपिटल (न्यूयॉर्क, मन्थली रिव्यू प्रेस-1966) में और जेम्स ओ कोनोर की पुस्तक फिस्कल क्राइसिस ऑफ द स्टेट (न्यूयॉर्क, सेन्ट मार्टिन्स प्रेस-1973) में। यह ध्यान देने योग्य है कि ऊपर के पाठ में गिनाये गये ट्रेडमिल के तीसरे तत्व में - समाप्त हो जाने की कीमत पर उत्पादन के साधनों का क्रान्तिकारीकरण - वह एकाधिकारी पूंजीवाद के अन्तर्गत किसी न किसी तरीके से कम प्रभावी बना दिया जाता है, लेकिन फिर भी व्यवस्था का लाभ रूझान बना रहता है।
4)   अल्बर्ट आइन्सटीन की पुस्तक आइडियाज़ एण्ड ओपीनियन (न्यूयॉर्क, डेल-1964) पृष्ठ - 20 पर शोपेनहावर का उध्दारण।
5)   चाण्डलर मोर्स, इन्वायर्न्मेन्ट एण्ड सोशलिज़्म, मन्थली रिव्यू 30:11 (अप्रैल 1979) 12-5; पेट्रा के केली, थिकिंग ग्रीन! (बर्कले, पारालैक्स प्रेस, 1994) पृष्ठ 22-3 कच्चा माल और उर्जा की लागत पहले से बहुत ज्यादा बढ़ने के प्रति व्यवस्था का रूझान विकसित पूंजीवादी देशों में 1970 के दशक और 1980 के पूर्वीध्द में कुछ हद तक उर्जा दक्षता में बढ़ोतरी से बराबर हो जाता था (सकल घरेलू उत्पाद और व्यवसायिक ईंधन उपयोग के अनुपात द्वारा मापने पर)। 1980 के दशक के मध्य से, हालाँकि अमरिका में ऊर्जा की कीमत घटने के परिणाम स्वरूप इस लिहाज से प्रगति धीमी रही, जो ऊर्जा का उपयोग पूरी तीसरी दुनिया के लगभग बराबर करता है, वहाँ 1986 तक ऊर्ज दक्षता सारतः अपरिवर्तित रही। देखें लेस्टर ब्राउन इत्यादि, वाइटल साइन्स, 1992, न्यूयार्क डब्ल्यू.डब्ल्यू नॉर्टन, 1992 ) पृष्ठ 126-7।
6)   स्पेल, कैन द वर्ल्ड बी सेण्ड पृष्ठ-65।
7)   मिल्स, द पावर एलीट (न्यूयॉर्क ऑक्सफोर्ड यूनिवर्तसिटी प्रेस 1996) पृष्ठ 338-61।
8)   केविन जे क्लान्सी और रॉबर्ट एस सुलमान, एक्रोस द बोर्ड, अक्टूबर 1993, पृष्ठ-38; द स्टेटिकल एक्सट्रैक्ट ऑफ द युनाइटेड स्टेट्स (लान्हम एम डी बर्नान प्रेस, 1993) पृष्ठ-147; द मनी सोसायटी फोरचुन 6 जुलाई 1987, पृष्ठ 26-31; बाहरो, सोशलिज़्म एण्ड सर्वाइवल (लन्दन, हेरेटिक बुक्स, 1982) पृष्ठ-31; कार्सन साइलेन्ट स्प्रिंग-3, द न्यूयॉर्क 38:19 (30जून 1962) पृष्ठ-67।
9)   डुर्निंग, हाउ मच इज इनफ? (न्यूयॉर्क, डब्ल्यू.डब्ल्यू नॉर्टन, 1992) पृष्ठ 136-7; जेरी मैन्डर, इन द एब्सेन्स ऑफ सेकरेड (सैन फ्रान्सिस्को, सियरो क्लब बुक्स 1991) पृष्ठ 78-9।
10)  हाउकेन, द इकोलोजी ऑफ कॉमर्स (न्यूयॉर्क, हार्पर एण्ड कोलिन्स, 1993) पृष्ठ 1-2, 55-6, 216।
11)  चोम्स्की साक्षात्कार बिल मोयर्स सम्पादित ए वर्ल्ड ऑफ आइडियाज़ (न्यूयॉर्क, डबलडे, 1989) पृष्ठ-42।
12)  गालब्रेथ, द कल्चर ऑफ कन्टेन्टमेन्ट, (न्यूयॉर्क, हॉफटन, मिफिलन, 1992) 
13)  केली, थिंकिंग ग्रीन! पृष्ठ-25, बेन जैक्सन, पोवर्टी एण्ड द प्लानेट (हमेडिसवर्थ: पेंग्विन, 1990) पृष्ठ 182-3; रेमण्ड विलियम्स, रिसोर्सेज ऑफ होप (लन्दन, वर्सो, 1989) पृष्ठ 221।
14)  उध्दरण- चेरिल पेयर की किताब से, लेन्ट एण्ड लॉस्ट (लन्दन, जेड बुक 1991) पृष्ठ 115; साथ ही सुसन जॉर्ज, द डेब्ट बुमरैंग केविन डानाहर सम्पादित, फिफ्टी इयर्स इज इनफ (बोस्टन सउथ एण्ड प्रेस, 1994) पृष्ठ-29।
15)  फोस्टर द लिमिट्स ऑफ इन्वायर्न्मेंटलिज्म विदाउट क्लास यह खण्ड थोमस टॉकिंग अबाउट ट्रीज; इम्पलोयमेंट एण्ड सोसायटी इन फोरेस्ट वर्कर्स कल्चर द कनाडियन रिव्यू ऑफ सोशियोलोजी, 31:1 (फरवरी1994) पृष्ठ 14-34।

  

Wednesday 13 December 2017

आर्थिक और पारिस्थितिक न्याय: क्या एक दूसरे के विरोधी है?

आज दुनिया भर में तीसरी दुनिया तथा अन्य तमाम देशों के प्रगतिशील और जनवादी आन्दोलनों के द्वारा बुनियादी तौर पर दो तरह की मांग उठायी जा रही है. इसमें पहली है-- आर्थिक न्याय की मांग और दूसरी है-- पारिस्थितिक न्याय की मांग. सिर्फ मेहनतकश किसान और मजदूर ही नहीं बल्कि मध्यवर्ग तथा उच्चवर्ग के कुछ लोग भी आर्थिक न्याय की मांग उठाने वालों में शामिल है. जबकि मध्यवर्ग के अधिकांश शिक्षित लोग पारिस्थितिक न्याय की मांग उठाने वालों में सबसे आगे हैं. अक्सर ये दोनों मुद्दे एक-दूसरे से टकराते भी हैं. इस टकराहट का नतीजा यह है कि पर्यावरण का मुद्दा आम जनता के लिए ख़ास मायने नहीं रख पाता और वह आर्थिक मांग के इर्द-गिर्द ही गोलबन्द होती है. पर्यावरण के मुद्दे पर जन-आन्दोलन तो हुए हैं लेकिन वे व्यवस्था परिवर्तन तक नहीं जा पाए क्योंकि इन आन्दोलनों का जनाधार बहुत कमजोर होता है. इसका फायदा तमाम देशों के शासक वर्ग तथा कॉर्पोरेट घरानों को मिलता है. एक तरफ साफ़ हवा और पानी के लिए मांग है तो दूसरी तरफ रोटी-कपड़ा-मकान की मांग. जैसे भारत में पश्चिमी घाट पर प्रोफ़ेसर माधव गाडगिल की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि पर्यावरण के मामले में सीकड़ों किलोमीटर में फैला पश्चिमी घाट बहुत संवेदनशील है. लिहाजा, इस इलाके में कोई उद्योग न लगाया जाए और अगर पहले से कोई उद्योग चल रहां हो तो उसे बंद कर दिया जाए. यह सुझाव कार्यरत उद्योग के खिलाफ तो था ही, इसके साथ ही इन उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों के लिए रोजी-रोटी का संकट पैदा करने वाली था. इससे मजदूर सीधे गाडगिल की पर्यावरण रिपोर्ट के खिलाफ खड़े हो गये. उनके लिए तो ज़िंदा रहने का सवाल पहले नंबर पर था. ऐसी स्थिति में सवाल यह है कि जब दोनों मुद्दों में टकराव हो तो किसका समर्थन किया जाये?
      रोटी-कपड़ा-मकान की जरूरत पूरी करने के लिए फैक्ट्री, खादान, विनिर्माण तथा खेती के उत्पादन में बढ़ोतरी आवश्यक है. जबकि आज विकास के इन्हीं तरीकों से प्रदूष्ण तेजी से फ़ैल रहा है. इसलिए लोगों को साफ़ हवा और पानी मिले, इसके लिए भूमि का अतिरिक्त शोषण, खनिजों का अतिरिक्त दोहन, पक्की सड़के तथा विनिर्माण के लिए सीमेंट, सरिया आदि के इस्तेमाल को कम करने की जरुरत है. ऐसा लगता है कि दुनिया की इतनी बड़ी आबादी को रोटी-कपड़ा-मकान और साफ़ हवा-पानी एक साथ मुहैया कराना सम्भव नहीं है.
इस बात पर गौर करना जरूरी है कि दुनिया भर में एक बड़ी आबादी के लिए रोटी-कपड़ा-मकान का मांग पूरा न होने की क्या वजह है? मानव सभ्यता जैसे-जैसे आगे बढ़ी उसके साथ लोगों की बुनियादी जरुरत भी बढती गयी. यानी आदिमानव जंगल से कंद-फल, पशु शिकार आदि के जरिये खाना जुटाता था, लेकिन आगे चलकर खेती और पशुपालन के लिए औजारों की जरुरत पड़ी. शुरू में पत्थर के औजार होते थे. धीरे-धीरे धातु के औजारों का आविष्कार किया गया. धातु के औजारों ने ज़िन्दगी को आसान बनाने में बहुत मदद की. इस पूरी प्रक्रिया में इंसान ने प्रकृति के विभिन्न संसाधनों को रूपांतरित करके उत्पादन को आगे बढ़ता रहा. इससे लगातार इंसान का जीवन स्तर ऊँचा होता गया. लेकिन एक बड़ी आबादी इस उन्नति से हमेशा वंचित ही रही. इसके बावजूद उत्पादन, उत्पादन प्रक्रिया और औजार में उन्नति ने इंसान के ज्ञान को बढाया. हजारों साल पहले आज की तरह दानवाकार कारखानें, होटल, सड़कें और रेलगाडियों का जाल नहीं था.
      लेकिन आज से लगभग पांच-छह सौ साल पहले दुनिया में एक बड़ी तबदीली आयी, जिससे न सिर्फ बड़े पैमाने का उत्पादन शुरू हुआ, बल्कि इसने बेरोज़गारी को भी जन्म दिया. भारी मशीनों के रूप में मानों बोतल से जिन्न बाहर निकल आया हो, जिसने इंसान की आज्ञा से हवा, पानी और जमीन पर अचरज भरे करतबों को रच दिया.  यह पूरी मानवता के इतिहास में एक नयी क्रान्ति थी. लेकिन इसके साथ ही उस जिन्न ने धरती को गंदगी से पाट दिया. इससे पहले इंसान द्वारा पैदा किये गए कचरों की मात्रा भी बहुत कम हुआ करती थी और उसको प्रकृति सोख लेती थी. लेकिन तूफानी उत्पादन ने बेइंतहा प्रदूष्ण पैदा किया है. साथ ही इसने इंसान की एक ख़ास मानसिकता को जन्म दिया है. वह मानसिकता है—अपनी जरुरत से ज्यादा पैदावार को बेचकर मुनाफ़ा कमाना. अब उपभोग के लिए नहीं बल्कि मुनाफे लिए उत्पादन हो रहा है. अपने पूर्वजों की तरह आज शासक वर्ग बंधुआ मजदूर नहीं रखता है बल्कि उसने पूरे मजदूर वर्ग को अपना बधुआ बना लिया है. यह इतना आकर्षक है कि गाँव छोड़कर किसान-मजदूर शहर के कारखानों की तरफ भागने लगे हैं क्योंकि अधिकाँश उद्योग शहरों में या उसके आस-पास केन्द्रित हैं. इस तरह मानवता के इतिहास में पहली बार बड़े औद्योगिक शहरों का निर्माण हुआ.
      औद्योगिक शहरों में मजदूर जमा होने लगे. इसने बेरोज़गारी को विकराल बना दिया. शुरू में कुछ लोग इसलिए बेरोज़गार हुये कि किसी एक शहर के कारखानों में जितने लोगों की जरुरत थी, गाँव से उससे ज्यादा लोग आ पहुंचे थे. इनमें से कुछ लोग अपनी मर्ज़ी से गाँव से शहर आये थे और कुछ लोगों को सरकार और निजी कम्पनियों की सांथ-गाँठ से बाकायदा गाँव से उजाड़ा गया था ताकि उनकी जमीन पर कब्जा किया जा सके. इसके लिए सेना-पुलिस की मदद से किसानों और मजदूरों को बाकायदा भेड़-बकरियों की तरह शहर की तरफ खदेड़ा गया. इस मामले में हम यूरोप का इतिहास, ख़ास कर इंग्लैण्ड का इतिहास पढ़ सकते हैं. उससे अच्छे उदाहरण हमारे देश में भूमि अधिग्रहण के मामलों में मिल जायेंगे. बड़ी कम्पनियों ने लघु और माध्यम उद्योग को भी तबाह किया. इसके चलते कुछ मालिक भी सड़क पर आ गये. बर्बाद हुए लोगों के पास कम मजदूरी पर काम करने के अलावा और कोई चारा नहीं है. बेरोजगारी बदने का कारण जनसंख्या में वृद्धि नहीं है और न ही लोगों के द्वारा कुर्सी मेज की नौकरी मांगना है, जैसा कि प्रचारित किया जाता है. बेरोजगारी का असली कारण मुनाफे पर आधारित यह व्यवस्था है.
इस दौरान खेती धनी किसानों और कारपोरेट कम्पनियों के हाथों में सिमटती जा रही है. इससे खेती के उत्पादन में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. लेकिन मुनाफे के लिए होने के चलते खेती बहु-फसली नहीं रह गयी. इसकी जगह पर एक-फसली खेती पर जोर बढ़ता गया. खेती कहीं लालच देकर तो कहीं ज़बरदस्ती से शुरू की गयी. तर्क यह था कि जहां गन्ने के लिए अनुकूल स्थिति है, वह इलाका गन्ना ही पैदा करे. नतीजन, किसान न केवल अपने कृषि उत्पाद के लिए, बल्कि अपनी जरूरत के लिए भी बाजार पर निर्भर हो गया. बाजार ने दोनों ओर से किसानों की बाहें मरोड़ दी. इस मुनाफे पर आधारित खेती ने जो पैदा किया वह है—तबाह खेती और बर्बाद किसान. इसके अतिरिक्त इसने एक और तबाही के गुल खिलाएं हैं, खाद-कीटनाशक के अधिक इस्तेमाल और भूजल के अतिरिक्त दोहन से धरती बंजर होती जा रही है और पेय जल का संकट पैदा होता जा रहा है.
      औद्योगिक शहरों में कारखानें बढ़ गये और उसमे काम करने वाले लोग भी बढ़ गये. इमारतें, झुग्गियां, स्कुल, अस्पताल, मशीन और यातायात के साधन बढ़ने से पर्यावरण प्रदूष्ण भी बढ़ गया. उत्पादन बढाने के लिए प्रकृति का निर्मम शोषण बड़े पैमाने पर हो रहा है. जंगल काटे जा रहे हैं और पहाड़ उजाड़े जा रहे हैं. शहरों में सबकुछ एक जगह केन्द्रित होने के चलते उस जगह पर्यावरण प्रदूष्ण बढ़ता जा रहा है. कचरे, शौच और नगरपालिका का अन्य कचरा फेकने उचित व्यवस्था न होने के चलते शहर गंदगी के ढेर में बदलते जा रहे हैं. मुनाफे की भूख में कम्पनियां अपना जहरीला धुआँ वायुमंडल में बिखेर देती हैं और जहरीला कचरा नदियों में बहा देती हैं. नतीजन दुनिया भर की नदियाँ गंदे नालों में तब्दील हो चुकी है.
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मुनाफे के लिए उत्पादन ने दुआहरा संकट पैदा किया है. एक ओर इसने दुनिया की बड़ी आबादी के आगे रोजी-रोटी के संकट और बेरोजगारी को जन्म दिया है, तो दूसरी ओर उसी आबादी को साफ़ हवा-पानी से वंचित भी कर दिया है. लेकिन पर्यावरण का संकट एक तबके या वर्ग तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका कहर पूरी इंसानियत को झेलना पड रहा है और जैव जगत भी इस विनाश की जद में है. पिछले तीन सौ सालों में स्वच्छ पर्यावरण और विनाशकारी प्रदूषण के बीच की खाई और ज्यादा बढ़ी है. दुनिया के 97 फ़ीसदी पर्यावरण और जलवायु वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले 60-70 सालों में इसमें उससे पहले की ढाई सदी को भी पीछे छोड़ दिया है.
विकास के मामले में दुनिया को दो हिस्से में बांटा जा सकता है-– उत्तर और दक्षिण. उत्तर में सभी विकसित और धनवान देश है जबकि दक्षिण में ज्यादातर देश गरीब और पिछड़े हैं. ये देश इतिहास के किसी न किसी मोड़ पर किसी उत्तर के दशों के गुलाम रह चुके हैं. उत्तरी देशों का विकास दक्षिणी की जनता की लूट पर टिका है. ‘हरित क्रांति’ की शुरुआत का मकसद भी यही था. इसकी शुरुआत मेक्सिको में हुई थी. खेती में उत्पादन बढ़ाने के लिए ‘उच्च उत्पादक बीजों’, कीटनाशकों, मशीनों और उर्वरकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया, जिससे सीधे इनका उत्पादन और वितरण करने वाली कम्पनियों ने अकूत मुनाफ़ा लूटा. जायज सी बात है कि ये कम्पनियां उत्तर के देशों की हैं. भारत में हरियाणा, पंजाब, और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रान्ति को सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया गया था, आज यही इलाके पर्यावरण प्रदुषण के चलते तरह-तरह की बीमारियों के चपेट में हैं. आगे चलकर यही मॉडल विश्व व्यापार संगठन की मदद से पूरी दुनिया में लागू किया गया. इसे विकास का नाम दिया गया. इस विकास की बयार में खाद और कीटनाशक से मिटटी का खारापन बहुत बढ़ गया तथा बहुत से आवश्यक कीडे भी मार डाले गए जो खेती के सहायक थे. विश्व व्यापार संगठन आज अमरीका, जापान और यूरोपीय यूनियन के हित साधने का मुख्य हथियार है. राजनितिक रूप से आजाद देश भी एकबार इस संगठन के सदस्य बनने के बाद अपनी आर्थिक नीति और विदेश नीति इस सगठन के हस्तक्षेप के बिना नहीं बना सकते.

इस मोड़ पर आकर लगता है पारिस्थितिकी के बचाव में लड़ने वालों के लिए यह सोचना भी जरुरी है कि इसके लिए खतरा कौन पैदा कर रहा है? दुनिया पर हुकूमत चलाने वाली सरकारें और वित्त बाज़ार के बादशाहों या कंगाल मेहनतकश बहुसंख्यक जनता. दूसरी तरफ हमें सोचना पड़ेगा बिना साफ़ हवा-पानी के रोटी-कपड़ा-मकान मिल भी जाये तो जिंदा रहना क्या तब भी मुमकिन होगा? आज इसी रफ़्तार में यह कॉपोरेट बादशाहों की लूट चलती रही तो धरती पर जिंदा रहने का संकट खडा हो जाएगा. इसलिए रोजी-रोटी की लड़ाई को अनिवार्य रूप से पर्यावरण न्याय की लड़ाई में शामिल करना पड़ेगा. दूसरी ओर पर्यावरण की लड़ाई का भी रोजी रोटी की लड़ाई के साथ रिश्ता बनाना जरुरी है.

--अमित इकबाल

Tuesday 16 December 2014

पूँजीवाद ही समस्या है-फ्रेड मैगडोफ़

1.      पर्यावरण संकट
वास्तव में “पर्यावरण संकट “ के अन्दर अनेक संकट शामिल हैं जैसे-
                    i.            जलवायु परिवर्तन
                  ii.            महासागरों में तेजाब घुलना(बढे हुए कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर से सम्बंधित
                iii.            नुकसानदायक पदार्थों के जरिये हवा, पानी, मिट्टी और जीवों का प्रदूषित होना
                 iv.            खेती योग्य भूमि की अवनति
                   v.            दलदलीय और उष्णकटिबंधीय वनों का विनाश
                 vi.            जैविक प्रजातियों का त्वरित विलोप
     इन संकटों ने सामान्य रूप से अमीरों की तुलना में गरीबों पर अधिक प्रतिकूल प्रभाव डाला है और शायद डालना जारी रहे. यह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि पर्यावरण न्याय की लड़ाई को पर्यावरण स्वास्थ्य के लिए होने वाले संघर्ष से जोड़कर आगे बढाया जाय.
2.      प्रस्तावित “समाधान” संकट के कारणों से सम्बंधित परिकल्पना पर आधारित है.
3.      संकट के लिए कारणों का सुझाव इस प्रकार है:-
वाल्ट केली का मशहूर “पोगों” कार्टून –“हम दुश्मन को जानते हैं और वह हम खुद हैं.” यह उद्धरण
ज्यादातर कारणों को समझाता है जो इस बहुत ख़राब पर्यावरण के लिए ठहराये जाते हैं. इनमें से कुछ की रूपरेखा इस प्रकार है-
-पर्यावरण पर चर्चा के सन्दर्भ में इस कार्टून का आशय है कि हममें से प्रत्येक व्यक्तिगत रूप से या सारे इंसान एक साथ पर्यावरण और हमें कमज़ोर बनाने के लिए जिम्मेदार हैं.
यहाँ पर्यावरण संकट के लिए अनेक तर्क दिए जा रहे हैं
*दुनिया में बहुत ज्यादा लोग हैं और हमें जनसंख्या को तेजी से कम करने की जरूरत है-आमतौर पर यह दुनिया के गरीब देशों विशेषकर अफ्रीका में, परिवार नियोजन के आह्वान में दिखाई देता है.
*औद्योगिक समाज समस्या है-हमें पूर्व औद्योगिक समाज में लौटना होगा. जिस व्यवस्था में बहुत कम लोगों की जरूरत होगी. यह मुद्दे से भटकना होगा कि यहाँ बहुत सारे लोग हैं लेकिन यह दृष्टिकोण उनसे अलग है जो मानते हैं कि जनसंख्या बहुत अधिक है.
* अगला प्रस्तावित कारण जनता के ऊपर दोष नहीं मढ़ता और यह देखना शुरू करता है कि  अर्थव्यवस्था की कार्यप्रणाली समस्या हो सकती है. यह दृष्टिकोण पूँजीवाद के बाहरी कारकों को समस्या मानता है, इस व्यवस्था को नहीं.
जैसा कम्पनी के मामलों में, इन सह उत्पादों(जिसके लिए भुगतान नहीं करते) की बात है इसकी सामाजिक कीमत होती है जो हम सबको नुकसान पहुंचती है और जिसकी कीमत हम सभी अदा करते हैं. इनमें शामिल है-
                                   i.            वित्तीय सुधार के लिए अभियान (धन की सत्ता को राजनीति में लाया जाय)
                                 ii.            नया व्यापार मॉडल
                               iii.            ऐसे उत्पाद बनाना जो टिकाऊ, बहुमुखी और आसानी से मरम्मत करने योग्य हो, जिसमें ऐसे पुर्जे हों जिनका पुनः उपयोग या पुनर्संस्करण किया जा सके.
                                iv.            पारिस्थितिकीय सेवाओं का व्यापार या बाजारीकरण और निजीकरण
                                  v.            व्यापार योग्य कार्बन क्रेडिट
                                vi.            कार्बन ऑफसेट योजना
                              vii.            सभी आर्थिक गतिविधि में एहतियाती सिद्धांत का उपयोग आदि
इसके बाद एक प्रतिष्ठित समिति ने पाया कि इस व्यवस्था के बाह्य कारकों को दुरुस्त करने में सचमुच कोई खर्च नहीं आएगा. इस सप्ताह की शुरुआत में न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख का शीर्षक था, “जलवायु परिवर्तन को दुरुस्त करने में कोई खर्च नहीँ” रिपोर्ट आगे इस प्रकार थी –
मंगलवार को एक वैश्विक आयोग अपने खोज की घोषणा करेगा कि उत्सर्जन को सीमित करने के लिए इसके उपायों की एक महत्वाकांक्षी योजना का खर्च 400 अरब डॉलर होगा और अगले 15 सालों में इसमें लगभग 5% की वृद्धि होगी. ये वृद्धि तो है जिसे नये विद्युत् संयंत्र, परिवहन प्रणाली और दूसरे बुनियादी ढाँचे पर किसी भी प्रकार खर्च करना ही होगा. अर्थव्यवस्था और जलवायु पर वैश्विक आयोग की खोज के अनुसार - पर्यावरण संरक्षक नीतियों के गौण फायदे –जैसे ईंधन के कम दाम, वायु प्रदुषण से होने वाली अकाल मृत्यु का कम होना और स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में कमी को ध्यान में रखा जाय तो इन बदलावों से बचत हो सकती है. जो यह दिखाते हैं कि बाह्य कारक ही समस्या (लक्षण के स्थान पर) हैं, वे कहते हैं कि हमें व्यवस्था के इन बाह्य कारकों को दुरुस्त करने के लिए बाजार आधारित पहुँच, कानून और नियामक इस्तेमाल करना चाहिए.
“बेहतर विकास, बेहतर पर्यावरण” रिपोर्ट में ऐसी उबाऊ बातों की कतारें हैं जो केवल बाह्य कारकों को संबोधित करने के लिए जरूरी है. और एक तरह से इनमें से कुछ बातों का वास्तव में कोई अर्थ है. उदाहारण के लिए जैसे- वैश्विक कार्य योजना के 10 सुझावों में से एक इस तरह है “शहरी विकास के बेहतर-प्रबन्धन को बढ़ावा देकर, दक्ष और सुरक्षित जन परिवहन प्रणाली में निवेश को वरीयता देकर नगर विकास के मुख्य रूप संयुक्त और सघन शहरों को मुख्य बनाया जाये. बिल्डरों को छोड़कर इससे किसे आपत्ति हो सकती है जबकि बिल्डर कुछ भी और कहीं भी बनाने के लिए खुली छूट चाहते हैं. वैश्विक कार्य योजना के साथ रिपोर्ट का सारांश यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था तर्कसंगत है और सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा. क्योंकि उनके लिए यह सब ऐसे ही करने का कोई मतलब है. फिर भी इस अनुमान के साथ थोड़ी समस्या यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था तर्कसंगत नहीं है और भारी लोकप्रिय संघर्षों की अनुपस्थिति में ज्यादातर अमीरों और ताकतवर आर्थिक शक्तियों की इच्छा से  सामान्य तौर पर सबकुछ जैसा है वैसा ही चलता रहेगा और इन लोगों की चिंता का विषय अपनी पूँजी को इकठ्ठा करते हुए, इसे आसान बनाना होता है. हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि मेक्सिको के राष्ट्रपति फेलिपे काल्देरोंचैर, बैंक ऑफ अमेरिका के अध्यक्ष कैड हॉलिडे, डैन डॉक्टरऑफ ब्लूमबर्ग के अध्यक्ष और सी.ई.ओ जैसे प्रकांड विद्वानों वाली समिति भी इस दोषपूर्ण पूर्वानुमान पर आधारित रिपोर्ट बना सकते हैं कि पूँजीवादी आर्थिक/राजनीतिक व्यवस्था तर्कसंगत है.
4. पूर्व पूँजीवादी व्यवस्था की तुलना में आज इंसानों द्वारा पर्यावरण के नुकसान में क्या अंतर है?
*बहुत ज्यादा लोग हैं और आसानी से रहने योग्य भूमि के अधिकांश भाग में फैले हैं.
*कच्चे माल की निकासी और प्रसंस्करण और उत्पादन जैसी तीव्र आर्थिक गतिविधियों के अधिकांश स्थानों पर अधिक तेजी से विनाश हो रहा है.
*आधुनिक तकनीक और औजारों के इस्तेमाल, उदाहरण के लिए पहाड़ों की चोटी हटाना और तार-बालू के दोहन से व्यापक क्षेत्रों में अधिक तेजी से नुकसान होता है.
*पूँजीवाद ऐसी आर्थिक व्यवस्था है जिसकी कोई सीमा नहीं है और जो किसी सीमा का सम्मान नहीं करता. जहाँ तक निगमों की बात है उनके लिए पर्याप्त विकास या पर्याप्त लाभ जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती.
5. पूँजीवाद में ऐसा क्या है जो इसे सामाजिक और पर्यावरण की दृष्टि से एक विनाशकारी व्यवस्था बनाता है?
पूँजीवाद की पारिस्थिकीय प्राणवायु इसके तथाकथित ‘बाहरी कारकों’ में नहीं मिल सकती जो उतनी ही नुकसानदेह है जितनी वह खुद है. बल्कि यह इसके आंतरिक तर्क और व्यवस्था के आंतरिक नियमों में है. इसकी कार्यप्रणाली के डी.एन.ए में है.
पूँजीवाद और पूँजीवादी व्यवस्था के बाजार (जो पूँजीवाद से बहुत पहले भी था) या तथाकथित “स्वतंत्र बाजार ” (जिसका अस्तित्व नहीं है) के बारे में बहुत भ्रम बना हुआ है. सभी साक्ष्यों के विपरीत कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पूँजीवाद को लोकतंत्र मानते हैं. लेकिन व्यवस्था की जड़ में जाने के लिए गहराई में देखने की जरूरत है.
पूँजीवाद की आंतरिक कार्यप्रणाली विकास को बढ़ावा देती है. व्यवस्था तभी तक “स्वस्थ” है जब तक यह तेजी से विकास कर रही है और अवरुद्ध विकास के समय या बहुत ही मंद विकास की स्थिति में यह व्यवस्था संकटग्रस्त हो जाती है जिससे ढेर सारे लोगों को पीड़ित होना पड़ता है. दूसरी तरफ मंद विकास पर्यावरण के लिए अच्छा है.
पूँजीपति के मुनाफा संचय की असीमित भूख को हरमन डैली का “असंभाव्य प्रमेय” नकारता है. पारिस्थिकीय अर्थशास्त्री हरमन डैली के “असंभाव्य प्रमेय” के  अनुसार “सीमित ग्रह पर असीमित विकास नहीं हो सकता है.” अंततः आप संसाधन से वंचित हो जाएंगे. “द लिमिट्स टू ग्रोथ” (लेखक-डोनेल्ला एच मिजिज) पुस्तक में मुख्य जोर इसी बात पर है. पुस्तक में दिए गए अनुमान घटनाओं की वास्तविकता के करीब साबित हुए हैं. पूँजीवाद का गतिशील हिस्सा जो इसे पूँजीवाद बनाता है. इसका सबसे अच्छा वर्णन ‘एम-सी-एम’ चक्र से हो सकता है जिसमें धन (पूँजी) का उपयोग कारखाना लगाने, मशीनरी खरीदने, मजदूरों को रखने में होता है. इसका उपयोग उत्पाद बनाने में किया जाता है जिसे उसकी लागत से ऊपर बेचा जाता है. (सेवा क्षेत्र की भी यही कहानी है.)
यह व्यवस्था अंतहीन मुनाफे की खोज पर टिकी हुई है. यह जनसंख्या के छोटे हिस्से पर आधारित है जो उत्पादन के साधनों के मालिक हैं और बड़ी आबादी जीविका कमाने के लिए इनके यहाँ काम करती है. संचय की ऐसी व्यवस्था में पर्याप्त मुनाफा या पर्याप्त उत्पाद और सेवाएँ जिसे बेची जा सके, जैसी कोई चीज़ नहीं होती. पूँजीपति मुनाफे का कुछ हिस्सा विलासितापूर्ण जीवन के लिए इस्तेमाल करता है और बाकी उसी या दूसरे व्यापार में निवेश कर देता है.  MCM’ आगे चलकर M’CM’’ में बदल जाता है और इससे M’’CM’’’... इस तरह यह चक्र आगे चलता रहता है.
कम्पनियां और निगम एक समान या मिलते-जुलते उत्पाद या सेवाएँ देती हैं जिसे बनाने के लिए वे एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती हैं. प्रतिस्पर्धा के वातावरण में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए इन्हें बाजार में हिस्सेदारी बढ़ानी होती है.
पिछले साल न्यूयॉर्क टाइम्स सन्डे मैगज़ीन में “जंक फूड” उद्योग के बारे में एक लेख था जिसमें कंपनियों के “उदर अंश” के लिए लड़ाई का विवरण था. उदर अंश का अभिप्राय बाजार में उपभोक्ता के उस हिस्से से है जिसे कोई कम्पनी प्रतिस्पर्धा से छिन सकती है.
प्रतिस्पर्धा में दूसरे प्रतियोगी भी खरीद लिए जाते हैं.
लेकिन किसी भी तरह, बड़े निगमों के हाथों आर्थिक गतिविधि के संकेन्द्रण में वृद्धि हुई है. शीर्ष 500 वैश्विक निगमों की आय पूरे विश्व की आय का 35-40 प्रतिशत है. भले ही हम पूँजीवाद के ऐसे दौर  में हैं जिसे एकाधिकार पूँजीवाद कहा जाता है, बड़ी कम्पनियां आपस में प्रतिस्पर्धा करती तो हैं लेकिन कीमतें घटाकर गलाकाट प्रतियोगिता नहीं करती हैं.
6. कम्पनियाँ सिंजेंटा, बायेर, बीएएसएफ, डोव, मोनसैन्टो और ड्यूपोंट 59.8 प्रतिशत व्यावसायिक बीज और 76.1 प्रतिशत कृषि-रसायन पर नियंत्रण रखती हैं. इन दो क्षेत्रों में यही 6 कंपनियाँ कम से कम 76 प्रतिशत सभी निजी क्षेत्र के अनुसंधान और विकास के लिए जिम्मेदार हैं.
इस तरह पूँजीवाद को आगे बढ़ाने वाली दो मुख्य ताकतें हैं
a)    अधिक मुनाफे से और अधिक धन संचय करने की खोज के लिए और मुनाफा कमाना ही इस व्यवस्था की चालक शक्ति है. निवेश इसलिए नहीं होते कि अधिकतर लोगों की  जरूरत की वस्तुएँ या सेवाएँ उपलब्ध हो, बल्कि इसलिए किए जाते हैं कि और अधिक मुनाफा हो. (कृषि व्यवस्था  मुनाफा पैदा करने के लिए है. भोजन उसका उप-उत्पाद है.)

नोट:- इंसान परोपकार से लेकर हिंसा तक, सभी प्रकार की विशेषता प्रदर्शित करतें हैं. पूँजीवाद में जीने और फलने-फूलने के लिए कुछ विशिष्ट व्यवहार जैसे- व्यक्तिवाद, प्रतिस्पर्धा लालच, स्वार्थ, दूसरों का शोषण, उपभोक्तावाद आदि लाभप्रद हैं और इन पर जोर दिया जाता है. साथ ही वे सभी मानवीय विशेषताएँ जैसे सहयोग, सहानुभूति और परोपकारिता का क्षरण होना है जिससे समाज में सौहार्द कायम रहता है. प्रतिष्ठित पत्रिका ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंस’ में एक लेख  का सार है कि उच्च सामाजिक वर्ग के अनैतिक व्यवहार में वृद्धि”. वालस्ट्रीट सिनेमा में काल्पनिक गोंर्डन गेको ने कहा  “लालच अच्छा है. यह सही है कि पूँजीवादी समाज में लालच न केवल अच्छा है बल्कि यह लगभग जरूरी है कि अगर आप पूँजीपति हैं तो आपके अन्दर यह बड़ी मात्रा में होनी चाहिए और हमारे पूरे आश्चर्य के विपरीत यह निष्कर्ष निकलता है कि अमीर ज्यादा लालची होते हैं और उच्च वर्ग के लोगों में अनैतिक व्यवहार की प्रवृत्ति होती है. यातायात नियमों के उल्लंघन से लेकर सार्वजनिक सामान चुराने के काम में इन्हें हिचक नहीं होती.
b)    ज्यादातर मामलों में कम्पनियां दूसरी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा करके अपने मार्केट शेयर में वृद्धि करना चाहती हैं. जैसे- ‘मार्केटिंग मैनेजमेंट’ (अब 14वें संस्करण में) के लेखक और मार्केटिंग गुरु फिलिप कोटलर ने टिपण्णी की:-
अगर ज्यादा जरूरतें नहीं हैं-जिससे मेरा मतलब है कि जितनी भी चीजें हम सोच सकें, कोई उनकी आपूर्ति कर रहा है-तब हमें नई ज़रूरतों का आविष्कार करना होगा... अब मुझे पता है कि उसकी आलोचना की गयी है. लोग कहते हैं :”तुम हमारे लिए यह सब क्यों कर रहे हो? हमें अकेला क्यों नहीं छोड़ देते? लेकिन यह ऐसी व्यवस्था है जहाँ हमें लोगों को उत्पादों की ज़रुरत के लिए प्रेरित करना होगा ताकि वे इन चीजों को हासिल करने के लिए काम करें. अगर उन्हें और जरूरत नहीं होगी तो वे कठिन परिश्रम नहीं करेंगे. वे सप्ताह में 35 घंटे चाहेंगे, फिर 30 घंटे... और इसी तरह. हाँ, बाजार ही हमें नयी इच्छाओं की ओर धकेलता है.

कोटलर यह बात सीधे नहीं बताते कि “समस्या” यह नहीं है कि लोग कम घंटे काम करेंगे और बाकी समय मस्ती काटेंगे लेकिन यह है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो कम सामान खरीदेंगे. कम्पनी और ऐसी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचेगा जिसमें अधिक से अधिक सामान बेचना उद्देश हो लडखडा जायेगी.
इसलिए- विकास इस व्यवस्था का अविभाज्य अंग है. लेकिन यह हमेशा विकास या पर्याप्त विकास नहीँ करता. धीमे या अवरुद्ध विकास के दौरान क्या होता है? बेरोजगारी बड़ी समस्या बन जाती है. जबकि कुछ अपवादों को छोड़कर, पूँजीवादी व्यवस्था में हमेशा बेरोजगारी बनी रहती है और अर्थव्यवस्था में मंदी आने पर समस्या बदतर हो जाती है. बेरोजगारी को कम करने के लिए सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 2 या 3 प्रतिशत होनी चाहिए. काम करने वालों की संख्या आज भी बढ़ रही है और नये आगंतुकों की भर्ती के लिए नयी नौकरियों की जरूरत है. साथ ही पूँजीपतियों के मुख्य लक्ष्यों में एक दक्षता को  बढ़ाना होता है ताकि कम मजदूरों से ज्यादा काम निकाल सके, यही इस व्यवस्था का नारा है और ऐसे तरीके मशीनें (रोबोट) और कंप्यूटर सॉफ्टवेयर को लाना जिससे उत्पादन की एक अवस्था के लिए कम मजदूरों की जरूरत पड़े. बढ़ी दक्षता से नौकरी खोने वाले पीड़ित लोगों के लिए नए रोजगार के सृजन की जरूरत होती है.
अमेरिका में एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था को बनाये रखने में 2 प्रतिशत का वार्षिक वृद्धि दर अपर्याप्त है. जिसका मतलब 35 सालों में जी.डी.पी. का दुगना हो जाता है. अगर अर्थव्यवस्था 3 प्रतिशत के स्वस्थ दर से विकास करती है तो वह 23 सालों में दुगनी हो सकती है. हालांकि जी.डी.पी. के दोगुना हो जाने का मतलब यह नहीं है कि संसाधन का उपयोग और प्रदूषण भी दोगुना हो जाए लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि इससे पर्यावरण की क्षति में उल्लेखनीय वृद्धि होती है.
इसका आशय यह है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पर्यावरण को बचाने के लिए कम विकास
या कोई विकास न हो, यह संभव नहीं है. इसके अलावा पूँजीपति से मुनाफा कमाने की ताकत छिनने के लिए, सरकार को चालक शक्ति और व्यवस्था का उद्देश्य अपने हाथ में लेने के लिए नौकरी देने वाला आखिरी सहारा बनना पड़ेगा क्योंकि इससे हटकर नई नौकरियाँ पैदा नहीं होंगी और मजदूरों के दक्षता बढ़ने से नौकरियाँ ख़त्म होंगी. मौजूदा व्यवस्था में सरकारी नियामकों के जरिये पर्यावरण क्षरण को कम करने के लिए कुछ काम किया जा सकता है. उदाहारण के लिए अमेरिका में “क्लीन वाटर एक्ट” के बाद नदियाँ पहले से ज्यादा साफ़ हो गयी. 1970 और 80 के दशक की तुलना में आज पूर्वोत्तर राज्यों में तेजाब की बारिश कम होती है और उसमें सलफेट की मात्रा भी कम होती है. अनेक संरक्षण कार्यक्रमों की वजह से अमरीका में भू-क्षरण की समस्या पहले की तुलना में कम हो गयी है. ऐसी क्षेत्रीय और स्थानीय गंभीर समस्याओं का हल  सरकारी नियामकों का नतीजा है. लेकिन व्यापर को सामान्य अवस्था में जारी रखते हुए उन्हें आसानी से हल किया जा सकता था. लेकिन ऐसे व्यापर के साथ नहीं जो नियामकों के खिलाफ लड़ता है या उसमें तोड़-फोड़ करता है.
कंपनियाँ भी ये दिखाने का दावा करती हैं कि वे किस तरह से पर्यावरण के पक्ष में हैं. इस सप्ताह डनकिन डोनट और क्रिस्पी क्रीमी ने दावा किया है कि वो डोनट भुनने के लिए केवल “वर्षावन मित्र” तेल का इस्तेमाल करेंगी. वे पुराने वर्षावन की जमीनों पर  लगे पेड़ों से उत्पन्न तेल नहीं खरीदेंगे. हालांकि अगर इसे वे अच्छी तरह से जारी रखते, तो भी ऐसे दावों का इस्तेमाल वे अपने उत्पाद को बेचने के लिए करेंगे जो आज भी वृद्धि के प्रति वचनबद्ध है. सभी पर्यावरण संरक्षण के दावे भी सही नहीं होते. राजनीतिक और आर्थिक तौर पर व्यापारिक स्वार्थ पहले से भी ज्यादा शक्तिशाली हैं. इस प्रकार आज उनकी शक्ति में महत्वपूर्ण कमी के बारे में उसी प्रकार संभव नहीं दिखता जिस तरह भिन्न किस्म का समाज. अगर कभी सारी ताकतें ऐसे कानून और नियामक बनाने के लिए एक जुट हो जाय जो किसी तरह पर्यावरण के ‘बाह्य कारकों’ को खत्म कर दे, सामाजिक बाह्य कारकों को एक ओर धकेल दे इसके बजाए इस अर्थव्यवस्था को ही क्यों न बदल डाला जाय.
इसे एक बार अर्थशास्त्री जोन रोबिनसन ने स्पष्ट किया था, “कोई भी सरकार जिसके पास पूँजीवादी व्यवस्था के मुख्य गलतियों को ठीक करने की इच्छा और शक्ति दोनों हो उसके पास इस व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करने की भी इच्छा और शक्ति होगी.”
पर्यावरण पर विचार करते समय वाल्ट केली के पोगों कार्टून को दूसरे शब्दों में लेना चाहिए “हम दुश्मन को जानते हैं और वह पूँजीवाद है.”
6. पूँजीवाद को किसी दूसरी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था से हटा देना पारिस्थितिक रूप से स्वस्थ समाज की गारंटी नहीं देता है-लोगों को इस दिशा में काम जारी रखना चाहिए.
ऐसी व्यवस्था हमारी मौजूदा आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था से हर मायने में भिन्न अवश्य होगी. यदि आप उन्नत पारिस्थिकीय और न्यायसंगत समाज की विशेषताओं के बारे में विस्तारपूर्वक जानना चाहतें हैं तो आप सितंबर के मंथली रिव्यु में मेरा लेख “उन्नत पारिस्थितिकीय और न्यायसंगत सामाजिक अर्थव्यवस्था” पढ़ सकते हैं.
ऐसी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर सार्थक सामाजिक नियंत्रण होना चाहिए जिसके लिए समुदाय, क्षेत्र और विभिन्न क्षेत्रों के लोग प्रयास करते हों.
                      i.        अर्थव्यवस्था और राजनीति का सार्थक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा विनियमन.
                    ii.        सभी इंसानों की मूलभूत जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन.
इसके लिए आर्थिक योजना की जरूरत होगी लेकिन ऊपर से नीचे की ओर केन्द्रीय योजना की नहीं बल्कि सामुदायिक, क्षेत्रीय और बहुक्षेत्रीय स्तर पर योजना की जरूरत होगी. सामाजिक उद्देश्य की पूर्ती करने वाली अर्थव्यवस्था को बहुत सक्रिय प्रबंधन के साथ आगे बढ़ाना चाहिए. वेनेज़ुएला के 30 हजार से अधिक सामुदायिक परिषदों की तरह अल्पकालिक और दीर्घकालिक जरूरतों के लिए योजना बनाने की शुरुआत सामुदायिक स्तर पर होती है और क्षेत्रीय योजना में अन्य समुदायों के साथ ताल-मेल होना चाहिए. ऐसे निर्णय जो ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए व्यक्तियों द्वारा लिए जाते हैं. इसके विपरीत अगर एक बार कोई अर्थव्यवस्था सामाजिक उद्देश्य के लिए चलायी जाय तो उसे योजना के बिना तर्कसंगत ढंग से नहीं चलाया जा सकता. उत्पादन और विवरण के लिए योजनाओं के अभाव में हम यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि सभी लोगों को पर्याप्त भोजन, साफ हवा, घर, स्वस्थ्य सेवाएँ मिल रहीं हैं?
                   iii.        जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकताओं के लिए सामुदायिक या क्षेत्रीय स्तर पर आत्मनिर्भरता (हालांकि पूर्ण आत्मनिर्भरता जरूरी नहीं हैं)
                   iv.        कार्यस्थलों में श्रमिकों का स्वशासन और कार्यस्थल के सभी मुद्दों में आसपास के समुदायों को शामिल करना जिससे उनका सरोकार हो.
                    v.        आर्थिक बराबरी जिसमें की सभी लोगों की मूलभूत अवाश्यकताएँ पूरी हों (लेकिन बहुत ज्यादा नहीं)

                   vi.        नोट: यह “मध्यम वर्गीय पश्चिमी जीवनशैली” के मानक से नीचे है. हमें चार धरती से अधिक की जरूरत होगी अगर हम यह मानक सबके लिए लागू करना चाहते हैं.
                  vii.        उत्पादन, निवास और परिवहन के लिए पारिस्थितिकीय नजरिये का इस्तेमाल.
6. पहुँचने का रास्ता
जन संघर्ष के द्वारा पूँजीवाद के स्थान पर सामाजिक नियंत्रण के अधीन समाजवादी समाज की स्थापना एक लम्बा रास्ता है. आज सबसे बेहतर उपाय यह है कि लोग पर्यावरण संतुलन और सामाजिक न्याय के लिए हो रहे संघर्षों में शामिल हो जाएँ. ये दोनों साथ ही चलने चाहिए. लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि केवल आम संघर्षों में ही भाग न लिया जाए बल्कि कल की तरह पर्यावरण के जुलूस जैसे कार्यक्रमों में भी शामिल हों. इस संघर्ष में हमें लोगों को अपने साथ जोड़ना चाहिए और शैक्षिक समूह का गठन करना चाहिए. इस तरह से हम उन लोगों की संख्या बढ़ा सकते हैं जो यह समझते हैं कि पूँजीवाद ही असली दुश्मन है और इसको एक स्वस्थ पारिस्थितिकीय और न्यायसंगत समाज के द्वारा बदल दिया जाय.

http://mrzine.monthlyreview.org/2014/magdoff260914.html

अनुवाद- अतुल तिवारी